जी चाहता है। लेखिका : कमलेश चौहान (गौरी) Copy right at Kamlesh Chauhan (Gauri)
जी चाहता है।
लेखिका : कमलेश चौहान (गौरी)
जिस धरती पर मेरी तक़दीर मुझे बिना पूछे कर्म के पंख लगाकर ले आयी थी.
दिल न जाने क्यूँ यू बैचैन सा रहता , हर';वक़त न जाने क्यूँ उखड़ा उखड़ा सा रहता है।
ना सहरा में ना जंगल बीयाबान में, न झीलों में न सागर की किनारेपर कभी बहलता है।
उस माटी में कभी मैले वस्त्रो में कभी , बिखरे बालो में नंगे पांव खेला करती थी
उस कर्म धरती की माटी को भी मैं अपने देश में मिलाने का सपना पालती थी
कितनी पावन थी मेरी वोह माटी ले हाथ तिरंगे को गली गली लहराया करती थी
बस एक ही तमन्ना है पंछी जानवर , बच्चे बूढ़े जवान युवो को देशप्रेम सीखा दु
सरहद पर लड़ने वालों सैनिक के आगे अपना सीस झुका उनके कदमो को चुम लु
टुटे उन आतंकियो के हाथ निगोड़े ,जिन्होंने मेरे देश के वीरो पर हैं बंब और पत्थर फोड़े
कट जाये वो जालिम ज़ुबान , जो मेरे देश के शहीदों, रक्षको के लिये अपशब्द है बोले ।
जी चाहता है बदले मेरा देश , बने फिर सोने की चिड़िया , रहे न जिन्दा कोई बेईमान
बांध कफ़न को सर पर उठो जवानों आतंकवादियो से करो अपने भारत माँ को आज़ाद
जी चाहता है मेरा भारत देश बन जाये बस इतना महान , जिसमे न हो कोई शैतान आबाद
( जिस धरती पर जनम लिया उस देश को आतंकीयो के हवाले मत करो , मेरे हिंदुस्तान में रहने वाले भाईयो, गर्मियां शुरू होने वाली है। नाकाम पडोसी की दहशत गर्दी खुनी हरकते शुरू होने वाली है हमारे हिमालय की और से )
कृपया कोई भी इस कविता का कॉपीराइट है कोई भी ऐसे तोड़ मड़ोड़ कर अपना ख्याल बनाने की कोशिश न करे , धन्य वाद
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