Satyaprakash Tyagi February 5 at 5:36pm Reply• Report मैं पतली सी धार नदी की गहराई को क्या पहचानूँ ! मेरे अंतर प्रेम ,ह्रदय के कुटिल भाव को मैं क्या जानूँ ! वैसे कहते लोग कि मैने, चीर दिया धरती का आँचल , मुझ से ही है जीत न पाया , कोई गिरिवर या कि हिमांचल , अम्बर पर छाये टुकड़ों में चीर दिए हैं मैने बादल, हर प्राणी कहते उत्सुक हैं सुनने को मेरी ध्वनि कल कल पितृ गृह से जब निकली थी धवल बनी कितनी ,कितनी थी निर्मल बढ़ता गया गरल ही मुझसे माना पछताई में पल पल आखिर मुझको ले ही डूबा लगता है जो सागर निश्छल ह्रदय दग्ध दिखलाऊँ किसको ,किसे पराया अपना मानू ! पथ साथी सब मिले लुटेरे मान के प्रेमी गले लगाया दोनों ही हाथों से लूटा तन मन अन्दर जो भी पाया सबने मुझको किया लांछित , देख जगत को मन भरमाया ! मैने सबके पाप समेटे जो भी जितना संग ले आया अस्तित्व मिटाया मैने अपना तभी सिन्धु ने गौरव पाया सुनी व्यथा पर दर्द न जाना , बोलो कैसे व्यथा बखानूं !! Copyright@Satyaparkash Tyagi